लघुकथा (बदला)
हे मानव तूने मुझे जनम दिया,
पाला पोसा ,बड़ा किया ,
मैं तेरे पर बहुत ही खुश था,
लेकिन ये क्या ?
बड़ा होते ही तूने मुझे
जड़ से उखाड़ लिया
मैं निहत्था क्या कर सकता था ?
ये मानव तूने मुझ पर छुरी चलायी
मेरे छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए
मैं तेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता था
फिर भी मन में बहुत गुस्सा था
बदला लेने की इच्छा थी
तेरी करनी का फल देना था
इसलिए मैंने अपनी गंध से तुम्हें
जार-जार रोने को बाध्य कर दिया
फिर भी इंसान को समझ नहीं आयी
इसीलिए ये बदला
सदियों से चला आ रहा है
पहचाना मुझे ???
नहीं ना
मैं हूँ प्याज ????????????????????
डॉ. जोगा सिंह जी , मानव की फितरत ही है , उसे उखार फेंकने की , इसमें मानव का स्वार्थ कितना बड़ा छीपा है . हे मानव !! अपने स्वार्थ के खातिर तूं किसे भी उखार फ़ेंक सकता है .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लघुकथा!
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